वो स्कुल के दिन

 वो सर्दी की गुनगुनी धूप शर्दी  के लाजवाब दिन, सुबह सुबह दाल भात खा कर  स्कूली दिन, नीली कमीज और  भूरी पैंट, वो मटमैला सा गले में टांगने  वाला बस्ता जो "गिला " रेहता  दवात की स्याही से, स्कूल जाना एक कौतिक ही था तब, एक दो रूपये में भरपूर चाय और "बन"   नारंगी टॉफियों  से जेबें भर जाया करती थी ,वो  गुरूजी  का सख्त रूख और बेंत की मार बहुत - बहुत चुभती थी आज न जाने क्यों शकून का अहसास कराती है , हमारा स्कूल बहुत दूर हुआ करता था, लगभग गांव से 10किलोमीटर की दुरी पर सुबह 5 बजे उठना पड़ता था, और मैं सबसे पहले स्कूल जाने के लिए तैयार होता था, बाकी सहपाठी मेरे बाद ही आये करते थे, क्यूंकि मेरा घर गांव से सबसे ऊपर था आना जाना 2, 3 घंटे लग ही जाते थे, कभी कभी हम नागरिक शास्त्र के बिषय का काम नहीं कर पाते थे तो नागरिक शास्त्र बिषय के गुरूजी इतने खतरनाक थे की उनका खौफ के कारण हम कभी कभी रास्ते मैं जंगल पड़ता था वहीँ घूमने चले जाते थे, जंगल होने के कारण वहां "चारा पती"लकड़ियों के लिए महिलाएं आया करती थी, महिलाएं अपने समूह मैं "स्थानीय भाषा मैं, गीत गाया करती थी, और हम लोग दूर बैठ कर सुना करते थे, और उनका हौसला अफजाई करते थे.... वाह वाह.... करके  महिलाएं अचंभित होती थी की आखिर मैं ये लोग कौन हैं, जो इतने दूर जंगल मैं आये हैं 

जैसे जैसे वो नजदीक आती हम भाग जाते..... आखिर मैं स्कूल की ड्रेस देखने के कारण हम पकडे गये फिर हुआ यूँ की जो अध्यापक "नागरिक शास्त्र" के थे  वो महिलाएं भी उन्ही की गांव की थी  दूसरे दिन अध्यापको को मालूम पड़ गया और हमारे घर नोटिस भेज दिया गया प्रिंसिपल की तरफ से फिर क्या था, "ना"घर के ना घाट के "घर मैं धुनाई अलग से और स्कूल मैं अलग से......... ऐसे भी दिन थे हमारे

 😊 प्रेम सिंह कुँवर    

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