पर्वतीय शादियां और रीती रीवाजे भाग 2

 बूढ़ी हो चली पहाड़ी शादियों की कई परम्परागत रस्में - 


आज आगे के कार्यक्रमों जानकारी दे रहे है  लम्बा लेख है कृपया पढे जरूर 


हल्दी की रस्म तब भी थी, बल्कि तब यह आज से ज्यादा जरूरी भी थी, आज तो इसका औचित्य परम्परा का हिस्सा भर हैं. दरअसल हल्दी व मेंहदी की रस्म कोई धार्मिक अनुष्ठान का हिस्सा न होकर वास्तव में दूल्हा-दुल्हन की खूबसूरती बढाने के लिए किया जाने वाला एक उपक्रम भर है. हल्दी व सरसों के उबटन के पीछे कारण केवल और केवल चेहरे की खूबसूरती बढ़ाना रहा है. जब सौन्दर्य प्रसाधनों का चलन नहीं था, तो हल्दी का उबटन चेहरे पर निखार लाने के लिए किया जाता था, लेकिन आज तमाम सौन्दर्य प्रसाधनों के प्रयोग के बावजूद यह रस्म अब भी बदस्तूर जारी है.

पर्वतीय शादियों में सुआल पथाई भी एक महत्वपूर्ण रस्म मानी जाती है. लाड़ू, तिल व चावल के आटे को भूनकर तथा गुड़ के मिश्रण से लड्डूनुमा आकार में बनाये जाते हैं और सुआले चावल के बारीक पीसे आटे को गुथकर तथा पूड़ी से कुछ बड़े आकार में बहुत पतले बेले जाते हैं और फिर धूप में सुखाये जाते हैं. जब इनका पानी सूख जाता है, तो सुहागिन महिलाओं द्वारा इनको तला जाता है. इस रस्म में नजदीकी रिश्तेदार तथा पड़ोस की महिलाओं को आमंत्रित कर सुआल पथाई में सहयोग लिया जाता है. इन सुआलों व लाड़ू को लम्बे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है. जब मिठाई जैसी चीजें चलन में न रही होंगी तो दूर दूर तक भेजने के लिए हमारे बुजुर्गों की यह सोच सार्थक रही होंगी, लेकिन आज के समाज में सुआले व लाड़ू रस्म अदायगी का एक हिस्सा भर रह चुकी हैं, जिन्हें देवताओं के भोग लगाने तथा वर व कन्या पक्ष के बीच आदान प्रदान की ओैपचारिकता तक ही सीमित कर दिया गया है, बर्गर, पिज्जा के युग की पीढ़ी सुआलों को कहां तवज्जो देगी?


सन् पचास के दशक की बात करें तो दूल्हे को झगुला पहनाया जाता था. झगुला गांव में किसी के पास एक ही होता था, जिसे मांगकर पूरे गांव का काम चलता था. सिर पर मुकुट और मुंह पर झालर तो लटके रहते ही, साथ में हाथ में शीशा और दांतों में रूमाल दबाये रखना उसकी अनिवार्यता थी. दांतों के बीच रूमाल दबाने के पीछे मकसद यह था कि दूल्हा इस बीच कुछ बोल न पाये. ऐसी मान्यता थी कि शादी के समय दूल्हा यदि बोलेगा तो उसकी सन्तान गूंगी होगी. फिर दूल्हे के लिए झगुले का स्थान कोट तथा पीली धोती ने लिया. यह फैशन भी नहीं टिक पाया तो दूल्हा को सूट में उतारा जाने लगा, लेकिन आज शेरवानी और चूड़ादार पैजामा दूल्हे की पहली पसन्द बन चुकी है.

समधी- समधिन बनाकर आदान-प्रदान भी रस्म के साथ मनोरंजन का एक जरिया था, जो आज भी बदस्तूर जारी है. दूसरे पक्ष की मजाक बने. इसी तरह का मजाक दूल्हा, दूल्हे के परिवार तथा बारातियों को भी खाना खिलाते समय गीतपूर्ण शैली में दुल्हन पक्ष की महिलाओं द्वारा दी जाने वाली गालियां भी होती थी. यह परंमपराऐं कमोवेश सभी जगह प्रचलित है, यहां तक भगवान राम तथा माता सीता के विवाह समारोह में भी इस तरह की गालियों का उल्लेख मिलता है. लेकिन कभी-कभी विवाद बढ़ने की आंशका के चलते इस तरह गाली देना, चलन से लगभग बाहर हो चला है.

दुल्हन को लाना एक तरह से फतह करना माना जाता था और क्षत्रिय लोगों में विजय के प्रतीकस्वरूप लम्बे-लम्बे ‘निशाण’ भी बारात के आगे-आगे चलते. बैण्ड बाजों की जगह पहाड़ी मशकबीन तथा सम्पन्न लोगों में छोल्यारों की व्यवस्था रहती थी. 


बारात कन्या के घर नियत समय गोधूली पर प्रवेश करती. कई-कई मील की पैदल यात्रा के बाद दूल्हे को थकान होनी स्वाभाविक थी. धूल्यर्घ (धूल को पानी का अघ्र्य) जैसा कि शब्द के अर्थ से ही स्पष्ट है – दूल्हे के धूल-धूसरित पैरों के प्रक्षालन व थकान मिटाने के लिए वर के पैरों को कन्या के पिता द्वारा धोया जाता. च्यूंकि पैर धोना एक प्रतिष्ठा का प्रश्न माना जाता, इसलिए कन्या के पिता का प्रयास रहता कि वर उसकी जाति के समकक्ष अथवा उससे उच्च जाति का हो. इसी कारण कहा जाता कि लड़की अपने से उच्च जाति में ही दी जानी चाहिये. कन्या के घर के बाहर खुले आसमान के नीचे आंगन में धूलिअर्घ या धूल्यर्घ की रस्म होती. जिसमें वर पक्ष को चौकी पर खड़ा किया जाता तथा दोनों पक्ष के पुरोहित ऊॅचे स्वर में गोत्राचार अथवा शाखोच्चार करते. वर व कन्या पक्ष के पुरोहित अपने अपने यजमान का परदादा से लेकर विवाहित होने वाले वर-कन्या का गोत्र, जाति तथा नाम आदि का उल्लेख बारी-बारी से करते और उपस्थित बाराती तथा घराती बडी तन्मयता से इसे सुनते. दोनों पुरोहित एक दूसरे से कुछ इस प्रकार वर व कन्या का परिचय पूछते हैं और दूसरे पुरोहित उसका उत्तर देते हैं-


किं गोत्रस्य, किं प्रवरस्य, किं शाखिनः,किं वेदाध्यायियनः, किं शर्मणः (यदि यजमान ब्राह्मण हो अन्यथा किं बर्मण) प्रपौत्री, किं गोत्रस्य, किं प्रवरस्य, किं शाखिनः,किं वेदाध्यायियनः, किं शर्मणः पौत्री, किं गोत्रस्य, किं प्रवरस्य, किं शाखिनः,किं वेदाध्यायियनः, किं शर्मणः पुत्री,किं नाम्नी वराभिलाषिणी श्री रूपिणीम आयुष्मती कन्याम्?


अर्थात् – एक वर पक्ष का पुरोहित पूछता कन्या का गोत्र क्या है? प्रवर क्या है? शाखा क्या है? किस वेद के अध्येता हैं? तथा किसकी प्रपौत्री है? किसकी पौत्री है तथा किसकी पुत्री है तथा कन्या का नाम क्या है? यह सब क्रमवार पूछा जाताण् है.


इसके उत्तर में दूसरा पक्ष के पुरोहित जवाब देते-


अमुक गोत्रस्य, अमुक प्रवरस्य, अमुक वेदस्य, अमुक शाखाध्यायिनः अमुक शर्मणः प्रपौत्रीम् अमुक गोत्रस्य, अमुक प्रवरस्य, अमुक वेदस्य, अमुक शाखाध्यायिनः अमुक शर्मणः पौत्रीम्, अमुक गोत्रस्य, अमुक प्रवरस्य, अमुक वेदस्य, अमुक शाखाध्यायिनः अमुक शर्मणः पुत्रीम् अमुक नाम्नी वराभिलाषिणीम् श्री रूपिणीम् आयुष्मतीम् कन्या:


फिर बारी दूसरे पक्ष के पुरोहित के इसी प्रकार पूछने की आती.


एक प्रकार से यह दोनों परिवारों का उपस्थित घरातियों एवं बरातियों के बीच परिचय की रस्म भी है और सभी लोगों को शादी का साक्ष्य बनाने की भी. लेकिन आज ’डे मैरिज’ में  धूल्यर्घ दोपहर के समय होता है और कान फोड़ू ’डीजे’ की आवाज में गोत्राचार की रस्म एक मजाक बनकर रह गयी है. इसी रस्म के दौरान वर को अंगूठी तथा अन्य वस्त्रादि सामग्री उपहार स्वरूप भेंट की जाती है. तब पंडित जी के निर्देश पर ही कर्मकाण्ड सम्पन्न होता था,लेकिन आज फोटोग्राफर व वीडियोग्राफर के निर्देशों के बीच पण्डित जी लाचार नजर आते हैं.दशक पूर्व तक धूल्यर्घ के बाद रात्रि की शादी,की शादी निश्चित शुभ मुहूत्र्त पर सम्पन्न होती थी लग्न का मुहूत्र्त रात के एक, दो या तीन बजे, जब हो तब तक धूल्यर्घ के बाद दोनों पक्ष खाना खाकर दो, तीन, चार घण्टे तक भी शुभ लग्न की प्रतीक्षा करते थे. लेकिन आज ’डे मैरिज’ के जमाने में न तो घूल्यर्घ का कोई समय निर्धारित रहता है और न शादी का लग्न का मुहूत्र्त. विपरीत इसके धूल्यर्घ के बाद जयमाला का फैशन चल पड़ा है, जो दूसरी संस्कृतियों से आयातित होकर लोकप्रिय हो चला है. जयमाला में वर कन्या द्वारा एक दूसरे को वरण करने के बाद ब्याह अथवा अन्य किसी रस्म का औचित्य ही क्या रह जाता है ? जब कि जयमाला रस्म जब तक चलन में नहीं थी,वर-कन्या एक दूसरे का दीदार रात की शादी के वक्त ही कर पाते और पाणिग्रहण (सात फेरे) ही शादी की रस्म की सम्पन्नता मानी जाती. लेकिन आज जयमाला के स्टेज पर दुल्हन को हाथ पकड़कर दूल्हा ही ऊपर चढ़ाता है,  जहां दुल्हन का हाथ दूल्हे ने थाम लिया और जयमाला एक दूसरे के गले में डाल दी, इसका मतलब वरण कर लिया. तब बिन फेरे हम तेरे के बाद पाणिग्रहण व विवाह की अन्य रस्मों का औचित्य ही क्या रह जाता है? शादी की अन्तिम रस्म में जब कन्या को वर को सौंप दिया जाता है, तो ध्रुव तारे को देखते हुए, उसे साक्षी मानकर परस्पर संबंध स्वीकार करने की रस्म थी, लेकिन आज के बारात घरों के बन्द कमरों में मात्र आकाश की ओर दृष्टि का उपक्रम कर यह भी एक सांकेतिक रस्म होकर रह गयी है.दुल्हन की विदाई के बाद द्विरागमन  भी रस्म का एक हिस्सा होता था, जिसमें कन्या का पिता वर पक्ष से द्विरागमन की तिथि पूछता और निर्धारित तिथि को शंख-ध्वनि से दम्पत्ति का स्वागत किया जाता था. ये तब जरूरी भी था, जब कन्या का ससुराल दूर होता था तथा आने-जाने के साधन सीमित थे. आज यातायात के साधनों से दूरियां बहुत कम हो चुकी हैं लेकिन रस्म अदायगी के नाम पर दुल्हन की विदाई के समय ही कुछ कदम चलकर और पुनः वापस लौटकर सांकेतिक रस्म अदायी की जाती है. जो न तो व्यावहारिक है और न यह किसी धार्मिक अनुष्ठान का हिस्सा. फिर भी रस्म ढोना हमारी बाध्यता है. 


दुल्हन के घर में प्रवेश के समय अक्षत परख कर नये जोड़े का स्वागत किया जाता है तथा पानी भरे लोटे को घुमाकर अभिषेक किया जाता है. इसका असल मकसद जल भरे लोटे से अभिषेक न होकर युगल दम्पत्ति की नजर उतारना रहा होगा, रस्म के पीछे कारण की जानकारी भले हो या न हो लेकिन परम्परा आज भी कायम है.


 

आज के बदलते परिवेश में कुछ पुरानी रस्में अप्रासंगिक होते हुए भी हम लकीर के फकीर बनकर परम्पराओं की दुहाई देते नहीं थकते. आशय ये नहीं है कि हम अपनी पुरानी परम्पराओं व रस्मों से विद्रोह करें, आवश्यकता इस बात की है कि जो रस्म परिस्थितिवश तब प्रांसगिक और अब अप्रांसगिक हो चुकी है, उनमें समयानुकूल तब्दीली लायें. 


भारतीय वैदिक संस्कृति, सनातन धर्म की अनमोल धरोहर है,इसी संस्कृति की देन है कि विवाह के बाद दम्पत्ति अग्नि को साक्ष्य मानकर सात फेरों में जो बचन दिये जाते हैं, उन्हें ताउम्र निभाने का प्रयास करते हैं. यही कारण है कि हिन्दू समाज में तलाक जैसे मामले बहुत विरल ही मिलते हैं. लेकिन कुछ रस्में जो धार्मिक अनुष्ठान का हिस्सा नहीं हैं, और समय व परिस्थितिवश बूढ़ी हो चुकी, ऐसी रस्मों को हम संस्कृति व परम्परा का हिस्सा मानकर ढोते न रहें  और यदि वैदिक परम्परा व सनातन संस्कृति पर आस्था रखते हों तो जयमाला जैसी रस्मों को वैवाहिक वैदिक रस्मों के सम्पन्न होने के बाद करें, लेकिन यदि जयमाला वैवाहिक रस्म से पहले ही करना है तो फिर पाणिग्रहण संस्कार जैसी रस्मों का औचित्य ही क्या रह जाता है ? बुद्धिमानी इसी में है कि सार सार को गहि रहे, थोथा देय उड़ाय.आशा है 


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