पर्वतीय शादियां और रीती रीवाजे भाग:-3

 वर को अंगूठी तथा अन्य वस्त्रादि सामग्री उपहार स्वरूप भेंट की जाती है. तब पंडित जी के निर्देश पर ही कर्मकाण्ड सम्पन्न होता था,लेकिन आज फोटोग्राफर व वीडियोग्राफर के निर्देशों के बीच पण्डित जी लाचार नजर आते हैं.दशक पूर्व तक धूल्यर्घ के बाद रात्रि की शादी,की शादी निश्चित शुभ मुहूत्र्त पर सम्पन्न होती थी लग्न का मुहूत्र्त रात के एक, दो या तीन बजे, जब हो तब तक धूल्यर्घ के बाद दोनों पक्ष खाना खाकर दो, तीन, चार घण्टे तक भी शुभ लग्न की प्रतीक्षा करते थे. लेकिन आज ’डे मैरिज’ के जमाने में न तो घूल्यर्घ का कोई समय निर्धारित रहता है और न शादी का लग्न का मुहूत्र्त. विपरीत इसके धूल्यर्घ के बाद जयमाला का फैशन चल पड़ा है, जो दूसरी संस्कृतियों से आयातित होकर लोकप्रिय हो चला है. जयमाला में वर कन्या द्वारा एक दूसरे को वरण करने के बाद ब्याह अथवा अन्य किसी रस्म का औचित्य ही क्या रह जाता है ? जब कि जयमाला रस्म जब तक चलन में नहीं थी,वर-कन्या एक दूसरे का दीदार रात की शादी के वक्त ही कर पाते और पाणिग्रहण (सात फेरे) ही शादी की रस्म की सम्पन्नता मानी जाती. लेकिन आज जयमाला के स्टेज पर दुल्हन को हाथ पकड़कर दूल्हा ही ऊपर चढ़ाता है,  जहां दुल्हन का हाथ दूल्हे ने थाम लिया और जयमाला एक दूसरे के गले में डाल दी, इसका मतलब वरण कर लिया. तब बिन फेरे हम तेरे के बाद पाणिग्रहण व विवाह की अन्य रस्मों का औचित्य ही क्या रह जाता है? शादी की अन्तिम रस्म में जब कन्या को वर को सौंप दिया जाता है, तो ध्रुव तारे को देखते हुए, उसे साक्षी मानकर परस्पर संबंध स्वीकार करने की रस्म थी, लेकिन आज के बारात घरों के बन्द कमरों में मात्र आकाश की ओर दृष्टि का उपक्रम कर यह भी एक सांकेतिक रस्म होकर रह गयी है.दुल्हन की विदाई के बाद द्विरागमन  भी रस्म का एक हिस्सा होता था, जिसमें कन्या का पिता वर पक्ष से द्विरागमन की तिथि पूछता और निर्धारित तिथि को शंख-ध्वनि से दम्पत्ति का स्वागत किया जाता था. ये तब जरूरी भी था, जब कन्या का ससुराल दूर होता था तथा आने-जाने के साधन सीमित थे. आज यातायात के साधनों से दूरियां बहुत कम हो चुकी हैं लेकिन रस्म अदायगी के नाम पर दुल्हन की विदाई के समय ही कुछ कदम चलकर और पुनः वापस लौटकर सांकेतिक रस्म अदायी की जाती है. जो न तो व्यावहारिक है और न यह किसी धार्मिक अनुष्ठान का हिस्सा. फिर भी रस्म ढोना हमारी बाध्यता है. 


दुल्हन के घर में प्रवेश के समय अक्षत परख कर नये जोड़े का स्वागत किया जाता है तथा पानी भरे लोटे को घुमाकर अभिषेक किया जाता है. इसका असल मकसद जल भरे लोटे से अभिषेक न होकर युगल दम्पत्ति की नजर उतारना रहा होगा, रस्म के पीछे कारण की जानकारी भले हो या न हो लेकिन परम्परा आज भी कायम है.


 

आज के बदलते परिवेश में कुछ पुरानी रस्में अप्रासंगिक होते हुए भी हम लकीर के फकीर बनकर परम्पराओं की दुहाई देते नहीं थकते. आशय ये नहीं है कि हम अपनी पुरानी परम्पराओं व रस्मों से विद्रोह करें, आवश्यकता इस बात की है कि जो रस्म परिस्थितिवश तब प्रांसगिक और अब अप्रांसगिक हो चुकी है, उनमें समयानुकूल तब्दीली लायें. 


भारतीय वैदिक संस्कृति, सनातन धर्म की अनमोल धरोहर है,इसी संस्कृति की देन है कि विवाह के बाद दम्पत्ति अग्नि को साक्ष्य मानकर सात फेरों में जो बचन दिये जाते हैं, उन्हें ताउम्र निभाने का प्रयास करते हैं. यही कारण है कि हिन्दू समाज में तलाक जैसे मामले बहुत विरल ही मिलते हैं. लेकिन कुछ रस्में जो धार्मिक अनुष्ठान का हिस्सा नहीं हैं, और समय व परिस्थितिवश बूढ़ी हो चुकी, ऐसी रस्मों को हम संस्कृति व परम्परा का हिस्सा मानकर ढोते न रहें  और यदि वैदिक परम्परा व सनातन संस्कृति पर आस्था रखते हों तो जयमाला जैसी रस्मों को वैवाहिक वैदिक रस्मों के सम्पन्न होने के बाद करें, लेकिन यदि जयमाला वैवाहिक रस्म से पहले ही करना है तो फिर पाणिग्रहण संस्कार जैसी रस्मों का औचित्य ही क्या रह जाता है ? बुद्धिमानी इसी में है कि सार सार को गहि रहे, थोथा देय उड़ाय.आशा है 


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