देवप्रयाग

उत्तराखंड के सभी शहरों का स्वयं का एक इतिहास है, इसी क्रम में देवप्रयाग शहर का भी अपना एक अलग और अनोखा इतिहास है। यह शहर पंडितों का स्थान है और ये पंडित बद्रीनाथ धाम से संबंधित होते हैं । देवप्रयाग में गंगोत्री से आने वाली भागीरथी नदी एवं बदरीनाथ धाम से आने वाली अलकनंदा नदी का संगम होता है और देवप्रयाग से यह नदी पवित्र गंगा के नाम से जानी जाती है|

अलकनंदा और भागीरथी के संगम पर स्थित यह शहर 472 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह नगर ऋषिकेश बदरीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग 58 पर स्थित देवप्रयाग तहसील का मुख्यालय है| मान्यतानुसार अलकनंदा नदी के पांच पवित्र संगम तीर्थों में एक देवप्रयाग को ऋषि देव शर्मा के नाम से भी जाना जाता है जिन्होने यहाँ तपस्या करके भगवान के दर्शन किये थे| इस नगर की अलौकिक एवं दैवीय सुन्दरता कई धार्मिक पर्यटकों को आकर्षित करती है| ये भी माना गया है की यहाँ भगवान् राम एवं राजा दशरथ ने तप किया था | अपने मन में भक्ति एवं विश्वास ले कर आये हुए पर्यटकों के दर्शनार्थ यहाँ रघुनाथ जी का दस हज़ार साल पुराना मंदिर स्थित है | संगम से ऊपर पुराने पत्थरों से बने इस मंदिर में एक अनियमित पिरामिड के रूप में एक गुम्बद है | पवित्र भागीरथी एवं अलकनंदा नदियों के संगम स्थल पर चट्टान के द्वारा दो पवित्र धाराओं के कुण्ड या घाटियों का निर्माण होता है जो की भागीरथी नदी पर ब्रह्म कुण्ड एवं अलकनंदा नदी पर वशिस्ठ कुण्ड के रूप में जानी जाती हैं | सन 1803 में आये भूकंप के कारण शहर के अन्य भवनों के साथ ही मंदिर को भी काफी नुकसान हुआ जिसकी मरम्मत आदि का कार्य दौलत राव सिंधिया जी के द्वारा कराया गया| प्रत्येक वर्ष लाखों श्रधालुओं के द्वारा रघुनाथ जी मंदिर के दर्शन किये जाते हैं| बदरीनाथ धाम के पंडों के इस शहर में एक पोस्ट ऑफिस और टेलिग्राफ ऑफिस, एक सार्वजनिक कॉल ऑफिस, एक पुलिस आउट पोस्ट, लोक निर्माण विभाग का डाक बंगला और एक अस्पताल है।

रघुनाथजी के मंदिर के अलावा, बैताल कुंड, ब्रह्म कुंड, सूर्य कुंड और वाशिष्ठ कुंड शहर में हैं; इन्द्राद्युम्न तीर्थ, पुश्यामल तीर्थ, वरह तीर्थ; पुष्प वाटिका; बैताल शिला और वरह शिला; भैरव, भूषण, दुर्गा और विश्वेश्वर के मंदिरों के अलावा भरत को समर्पित एक मंदिर भी है| यहाँ बैताल शिला पर स्नान से कुष्ठ रोग का इलाज होने का दावा भी किया जाता है। देवप्रयाग के समीप ही दशरथान्चल नामक पहाड़ी भी है जिसमे एक चट्टान को दशरथ शिला कहा जाता है, मान्यता है कि इसी शिला पर राजा दशरथ ने ध्यान एवं तप किया था| इस पहाड़ी से एक धारा भी बहती है जिसका नाम राजा दशरथ की पुत्री शांता के नाम पर शांता है|

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