टिहरी गढ़वाल

 टिहरी के बारे मे आप तक कूछ जानकरी

टिहरी सन् 1815 से पूर्व तक एक छोटी सी बस्ती थी।

धुनारों की बस्ती, जिसमें रहते थे 8-10 परिवार। इनका

व्यवसाय था तीर्थ यात्रियों व अन्य लोगों को नदी

आर-पार कराना।

धुनारों की यह बस्ती कब बसी। यह विस्तृत व स्पष्ट रूप से

ज्ञात नहीं लेकिन 17वीं शताब्दी में पंवार वंशीय

गढ़वाल राजा महीपत शाह के सेना नायक रिखोला

लोदी के इस बस्ती में एक बार पहुंचने का इतिहास में

उल्लेख आता है। इससे भी पूर्व इस स्थान का उल्लेख स्कन्द

पुराण के केदार खण्ड में भी है जिसमें इसे गणेशप्रयाग व

धनुषतीर्थ कहा गया है। सत्तेश्वर शिवलिंग सहित कुछ और

सिद्ध तीर्थों का भी केदार खण्ड में उल्लेख है। तीन

नदियों के संगम (भागीरथी, भिलंगना व घृत गंगा) या

तीन छोर से नदी से घिरे होने के कारण इस जगह को

त्रिहरी व फिर टीरी व टिहरी नाम से पुकारा जाने

लगा।

पौराणिक स्थल व सिद्ध क्षेत्र होने के बावजूद टिहरी

को तीर्थस्थल के रूप में ज्यादा मान्यता व प्रचार नहीं

मिल पाया। ऐतिहासिक रूप से यह 1815 में ही चर्चा में

आया जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सहायता से गढ़वाल

राजा सुदर्शन शाह गोरखों के हाथों 1803 में गंवा बैठे

अपनी रियासत को वापस हासिल करने में तो सफल रहे

लेकिन चालाक अंग्रेजों ने रियासत का विभाजन कर

उनके पूर्वजों की राजधानी श्रीनगर गढ़वाल व

अलकनन्दा पार का समस्त क्षेत्र हर्जाने के रूप मे हड़प

लिया। सन् 1803 में सुदर्शन शाह के पिता प्रद्युम्न शाह

गोरखों के साथ युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए थे। 12

साल के निर्वासित जीवन के बाद सुदर्शन शाह शेष बची

अपनी रियासत के लिए राजधानी की तलाश में निकले

और टिहरी पहुंचे। किंवदंती के अनुसार टिहरी के काल

भैरव ने उनकी शाही सवारी रोक दी और यहीं पर

राजधानी बनाने को कहा। 28 या 30 दिसम्बर 1815 को

सुदर्शन शाह ने यहां पर विधिवत गढ़वाल रियासत की

राजधानी स्थापित कर दी। तब यहां पर धुनारों के मात्र

8-10 कच्चे मकान ही थे।

राजकोष लगभग खाली था। एक ओर रियासत को

व्यवस्था पर लाना व दूसरी ओर राजधानी के विकास

की कठिन चुनौती। 700 रु. में राजा ने 30 छोटे-छोटे

मकान बनवाये और यहीं से शुरू हुई टिहरी के एक नगर के रूप में

आधुनिक विकास यात्रा। राजमहल का निर्माण भी शुरू

करवाया गया लेकिन धन की कमी के कारण इसे बनने मे

लग गये पूरी 30 साल। इसी राजमहल को पुराना दरबार के

नाम से जाना गया।

टिहरी की स्थापना अत्यन्त कठिन समय व रियासती

दरिद्रता के दौर में हुई। तब गोरखों द्वारा युद्ध के दौरान

रौंदे गये गांव के गांव उजाड़ थे। फिर भी टैक्स लगाये जाने

शुरू हुए। जैसे-जैसे राजकोष में धन आता गया टिहरी में नए

मकान बनाए जाते रहे। शुरू के वर्षों में जब लोग किसी

काम से या बेगार ढ़ोने टिहरी आते तो तम्बुओं में रहते।

सन् 1858 में टिहरी में भागीरथी पर लकड़ी का पुल

बनाया गया इससे आर-पास के गांवों से आना-जाना

सुविधाजनक हो गया।

1859 में अंग्रेज ठेकेदार विल्सन ने रियासत के जंगलों के

कटान का ठेका जब 4000 रु. वार्षिक में लिया तो

रियासत की आमदनी बढ़ गई। 1864 में यह ठेका ब्रिटिश

सरकार ने 10 हजार रु. वार्षिक में ले लिया। अब रियासत

के राजा अपनी शान-शौकत पर खुल कर खर्च करने की

स्थिति में हो गये।

1959 में सुदर्शन शाह की मृत्यु हो गयी और उनके पुत्र

भवानी शाह टिहरी की राजगद्दी पर बैठे। राजगद्दी पर

विवाद के कारण इस दरम्यान राजपरिवार के ही कुछ

सदस्यों ने राजकोष की जम कर लूट की और भवानी शाह

के हाथ शुरू से तंग हो गये। उन्होंने मात्र 12 साल तक गद्दी

सम्भाली। उनके शासन में टिहरी में हाथ से कागज बनाने

का ऐसा कारोबार शुरू हुआ कि अंग्रेज सरकार के

अधिकारी भी यहां से कागज खरीदने लगे।

भवानी शाह के शासन के दौरान टिहरी में कुछ मंदिरों

का पुनर्निर्माण किया गया व कुछ बागीचे भी लगवाये

गये।

1871 में भवानी शाह के पुत्र प्रताप शाह टिहरी की

गद्दी पर बैठे। भिलंगना के बांये तट पर सेमल तप्पड़ में उनका

राज्याभिषेक हुआ। उनके शासन मे टिहरी में कई नये

निर्माण हुए। पुराना दरवार राजमहल से रानी बाग तक

सड़क बनी, कोर्ट भवन बना, खैराती सफाखान खुला व

स्थापना हुई। रियासत के पहले विद्यालय प्रताप कालेज

की स्थापना जो पहले प्राइमरी व फिर जूनियर स्तर का

उन्हीं के शासन में हो गया।

राजकोष में वृद्धि हुई तो प्रतापशाह ने अपने नाम से 1877

मंे टिहरी से करीब 15 किमी पैदल दूर उत्तर दिशा में

ऊंचाई वाली पहाड़ी पर प्रतापनगर बसाना शुरू किया।

इससे टिहरी का विस्तार कुछ प्रभावित हुआ लेकिन

टिहरी में प्रतापनगर आने-जाने हेतु भिलंगना नदी पर झूला

पुल (कण्डल पुल) का निर्माण होने से एक बड़े क्षेत्र (रैका-

धारमण्डल) की आबादी का टिहरी आना-जाना

आसान हो गया। नदी पार के गांवों का टिहरी से जुड़ते

जाना इसके विकास में सहायक हुआ। राजधानी तो यह

थी ही व्यापार का केन्द्र भी बनने लगी।

1887 में प्रतापशाह की मृत्यु के बाद उनका पुत्र

कीर्तिशाह गद्दी पर बैठा। उन्होंने एक और राजमहल

कौशल दरबार का निर्माण कराया। उन्होंने प्रताप

कालेज को हाईस्कूल तक उच्चीकृत कर दिया। कैम्बल

बोर्डिंग हाउस, एक संस्कृत विद्यालय व एक मदरसा भी

टिहरी में खोला गया। कुछ सरकारी भवन बनाए गये,

जिनमें चीफ कोर्ट भवन भी शामिल था। इसी चीफ

कोर्ट भवन मे 1992 से पूर्व तक जिला सत्र न्यायालय

चलता रहा। 1897 में यहां घण्टाघर बनाया गया जो

तत्कालीन ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया की हीरक

जयंती की स्मृति में बनाया गया था। इसी दौरान शहर

को नगर पालिका का दर्जा भी दे दिया गया।

सार्वजनिक स्थानों तक बिजली पहुंचाई गई। इससे पूर्व

राजमहल में ही बिजली का प्रकाश होता था।

कीर्तिशाह ने अपने नाम से श्रीनगर गढ़वाल के पास

अलकनन्दा के इस ओर कीर्तिनगर भी बसाया लेकिन तब

भी टिहरी की ओर उनका ध्यान रहा। कीर्तिनगर से उनके

पूर्वजों की राजधानी श्रीनगर चार किमी दूर ठीक

सामने दिखाई दे जाती है।

कीर्तिशाह के शासन के दौरान ही टिहरी में सरकारी

प्रेस स्थापित हुई जिसमें रियासत का राजपत्र व अन्य

सरकारी कागजात छपते थे। स्वामी रामतीर्थ जब (1902

में) टिहरी आये तो राजा ने उनके लिए सिमलासू में गोल

कोठी बनाई यह कोठी शिल्पकला का एक उदाहरण

मानी जाती थी।

सन् 1913 में कीर्तिशाह की मृत्यु के बाद उनका पुत्र

नरेन्द्रशाह टिहरी की गद्दी पर बैठा। 1920 में टिहरी में

प्रथम बैंक (कृषि बैंक) की स्थापना हुई और 1923 में

पब्लिक ‘लाइब्रेरी’ की। यह लाइब्रेरी बाद में सुमन

लाइब्रेरी कें नाम से जानी गई जो अब नई टिहरी में है।

1938 में काष्ट कला विद्यालय खोला गया और 1940 में

प्रताप हाईस्कूल इन्टर कालेज में उच्चीकृत कर दिया

गया।

बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारतभर में मोटर

गाडि़यां खूब दौड़ने लगी थी। टिहरी में भी राजा की

मोटर गाड़़ी थी जो राजमहल से मोतीबाग व बाजार में

ही चलती थी। तब तक ऋषिकेश-टिहरी मोटर मार्ग नहीं

बना था इसलिए मोटर गाड़ी के कलपुर्जे अलग-अलग

लाकर टिहरी में ही जोड़े गये थे।

नरेन्द्रशाह ने मोटर मार्ग की सुविधा देखते हुए 1920 में

अपने नाम से ऋषिकेश से 16 किमी दूर नरेन्द्रनगर बसाना

शुरू किया। 10 साल में 30 लाख रु. खर्च कर नरेन्द्रनगर

बसाया गया। इससे टिहरी के विकास मे कुछ गतिरोध आ

गया। 1926 में नरेन्द्रनगर व 1940 में टिहरी तक सड़क बन गई

और गाडि़यां चलने लगी। पांच साल तक गाडि़यां

भागीरथी पार पुराना बस अड्डा तक ही आती थी।

टिहरी का पुराना पुल 1924 की बाढ़ में बह गया था।

लगभग उसी स्थान पर लकड़ी का नया पुल बनाया गया।

इसी पुल से पहली बार 1945 में राजकुमार बालेन्दुशाह ने

स्वयं गाड़ी चलाकर टिहरी बाजार व राजमहल तक

पहुंचाई। 1942 में टिहरी में एक कन्या पाठशाला भी शुरू

की गई।

1946 को टिहरी में ही नरेन्द्रशाह ने राजगद्दी स्वेच्छा से

अपने पुत्र मानवेन्द्र शाह को सौंप दी जिन्होंने मात्र दो

वर्ष ही शासन किया। 1948 में जनक्रांति द्वारा

राजशाही का तख्ता पलट गया। सुदर्शन शाह से लेकर

मानवेन्द्र शाह तक सभी छः राजाओं का राज तिलक

टिहरी में ही हुआ।

टिहरी के विकास का एक चरण 1948 में पूरा हो जाता है

जो राजा की छत्र-छाया में चला। इस दौरान राजाओं

द्वारा अलग-अलग नगर बसाने से टिहरी की विकास

यात्रा पर प्रभाव पड़ा लेकिन तब भी इसका महत्व बढ़ता

ही रहा। राजमाता (प्रतापशाह की पत्नी) गुलेरिया ने

अपने निजी कोष से बदरीनाथ मंदिर व धर्मशाला बनवाई

थी। विभिन्न राजाओं के शासन के दौरान- मोती बाग,

रानी बाग, सिमलासू व दयारा में बागीचे

लगाये गये। शीशमहल, लाट कोठी जैसे दर्शनीय भवन बने व

कई मंदिरों का भी पुनर्निर्माण कराया गया।

1948 में अन्तरिम राज्य सरकार ने टिहरी-धरासू मोटर

मार्ग पर काम शुरू करवाया। 1949 में संयुक्त प्रांत में

रियासत के विलीनीकरण के बाद टिहरी के विकास के

नये रास्ते खुले ही थे कि शीघ्र ही साठ के दशक में बांध

की चर्चायें शुरू हो गई। लेकिन तब भी इसकी विकास

यात्रा रुकी नहीं। भारत विभाजन के समय सीमांत क्षेत्र

से आये पंजाबी समुदाय के कई परिवार टिहरी में आकर

बसे। मुस्लिम आबादी तो यहां पहले से थी ही।

जिला मुख्यालय नरेन्द्रनगर में रहा लेकिन तब भी कई

जिला स्तरीय कार्यालय टिहरी में ही बने रहे। जिला

न्यायालय, जिला परिषद, ट्रेजरी सहित दो दर्जन जिला

स्तरीय कार्यालय कुछ वर्ष पूर्व तक टिहरी में ही रहे जो

बाद में नई टिहरी में लाये गये।

सत्तर के दशक तक यहां नये निर्माण भी होते रहे व नई

संस्थाएं भी स्थापित होती रही। पहले डिग्री कालेज व

फिर विश्व विद्यालय परिसर, माॅडल स्कूल, बीटीसी

स्कूल, राजमाता कालेज, नेपालिया इन्टर कालेज, संस्कृत

महाविद्यालय सहित अनेक सरकारी व गैर सरकारी

विद्यालय खुलने से यह शिक्षा का केन्द्र बन गया। यद्यपि

साथ-साथ बांध की छाया भी इस पर पड़ती रही। सुमन

पुस्तकालय इस शहर की बड़ी विरासत रही है जिसमें

करीब 30 हजार पुस्तके हैं।

राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक ढ़ांचे के अनुरूप बसते

गये टिहरी शहर के मोहल्ले मुख्य बाजार के चारों ओर

इसकी पहचान को नये अर्थ भी देते गये। पुराना दरवार तो

था ही, सुमन चैक, सत्तेश्वर मोहल्ला, मुस्लिम मोहल्ला,

रघुनाथ मोहल्ला, अहलकारी मोहल्ला, पश्चिमियाना

मोहल्ला, पूर्वियाना मोहल्ला, हाथी थान मोहल्ला,

सेमल तप्पड़, चनाखेत, मोती बाग, रानी बाग, भादू की

मगरी, सिमलासू, भगवत पुर, दोबाटा, सोना देवी सभी

मोहल्लों के नाम सार्थक थे और इन सबके बसते जाने से

बनी थी टिहरी।

मूल वासिंदे धुनारों की इस बस्ती में शुरू में वे लोग बसे जो

सुदर्शन शाह के साथ आये थे। इनमें राजपरिवार के सदस्यों

के साथ ही इनके राज-काज के सहयोगी व कर्मचारी थे।

राजगुरू, राज पुरोहित, दीवान, फौजदार, जागीरदार,

माफीदार, व दास-दासी आदि। बाद में जब राजा

रियासत के किन्हीं लोगों से खुश होते या प्रभावित

होते तो उन्हें जमीन दान करते। धर्मार्थ संस्थाओं को भी

जमीन दी जाती रही।

बाद में आस-पास के गांवों के वे लोग जो सक्षम थे टिहरी

में बसते चले गये। आजादी के बाद टिहरी सबके लिये अपनी

हो गई। व्यापार करने के लिये भी काफी लोग यहां पहुंचे

व स्थाई रूप से रहने लगे। बांध के कारण पुनर्वास हेतु जब

पात्रता बनी तो टिहरी के भूस्वामी परिवारों की

संख्या 1668 पाई गई। अन्य किरायेदार, बेनाप व

कर्मचारी परिवारों की संख्या करीब साढ़े तीन हजार

थी।

बिषेश टिहरी - इतिहास की झलक

पौराणिक काल - टिहरी स्थित भागीरथी, भिलंगना व

घृत गंगा के संगम का गणेश प्रयाग नाम से स्कन्ध पुराण के

केदारखण्ड में उल्लेख। सत्येश्वर महादेव (शिवलिंग) व

लक्षमणकुण्ड (संगम का स्नान स्थल) शेष तीर्थ व धनुष

तीर्थ आदि स्थानों का भी केदारखण्ड में उल्लेख।

17वीं सताब्दी- (1629-1646 के मध्य) पंवार बंशीय

राजा महीपत शाह के सेनापति रिखोला लोदी का

धुनारों के गांव टिहरी में आगमन और धुनारों को खेती के

लिए कुछ जमीन देना।

सन् 1803- नेपाल की गोरखा सेना का गढ़वाल पर

आक्रमण। श्रीनगर गढ़वाल राजधानी पंवार वंश से गोरखों

ने हथिया ली व खुड़बूड़ (देहरादून) के युद्ध में राजा प्रद्युम्न

शाह को वीरगति। प्रद्युम्न शाह के नाबालिग पुत्र

सुदर्शन शाह ने रियासत से पलायन कर दिया।

जून, 1815- ईस्ट इण्डिया कम्पनी से युद्ध में गोरखा सेना

की निर्णायक पराजय, सुदर्शन शाह ने ईस्ट इण्डिया

कम्पनी से सहायता मांगी थी।

जुलाई, 1815- सुदर्शन शाह अपनी पूर्वजों की राजधनी

श्रीनगर गढ़वाल पहुंचा और पुनः वहां से रियासत संचालन

की इच्छा प्रकट की।

नवम्बर, 1815- ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने दून क्षेत्र व

श्रीनगर गढ़वाल सहित अलकनन्दा के पूरब वाला क्षेत्र

अपने शासन में मिला दिया और पश्चिम वाला क्षेत्र

सुदर्शन शाह को शासन करने हेतु वापस सौंप दिया।

29 दिसम्बर, 1815- नई राजधनी की तलाश में सुदर्शन

शाह टिहरी पहुंचे, रात्रि विश्राम किया। किंबदंती के

अनुसार काल भैरव ने उनका घोड़ा रोक दिया था। यह

भी किंबदंती है कि उनकी कुलदेवी राजराजेश्वरी ने सपने

में आकर सुदर्शन शाह को इसी स्थान पर राजधानी बसाने

को कहा था।

30 दिसम्बर, 1815- टिहरी में गढ़वाल रियासत की

राजधनी स्थापित। इस तरह पंवार वंशीय शासकों की

राजधनी का सफर 9वीं शताब्दी में चांदपुर गढ़ से प्रारम्भ

होकर देवल गढ़ व श्रीनगर गढ़वाल होते हुए टिहरी तक

पहुंचा।

जनवरी, 1816- टिहरी में राजकोष से 700 रुपये खर्च कर

एक साथ 30 मकानों का निर्माण शुरू किया गया। कुछ

तम्बू भी लगाये गये।

6 फरवरी, 1820- प्रसिद्ध ब्रिटिश पर्यटक मूर क्राफ्रट

अपने दल के साथ टिहरी पहुंचा।

4 मार्च, 1820- सुदर्शन शाह को ईस्ट इण्डिया कम्पनी के

गर्वनर जनरल ने गढ़वाल रियासर के राजा के रूप में

मान्यता (स्थाई सनद) दी।

1828- सुदर्शन शाह द्वारा सभासार ग्रंथ की रचना की

गयी।

1858- भागीरथी नदी पर पहली बार लकड़ी का पुल

बनाया गया।

1859- अग्रेज ठेकेदार विल्सन ने चार हजार रुपये वार्षिक

पर रियासत में जंगल कटान का ठेका लिया।

तिथि ज्ञात नहीं- सुदर्शन शाह ने टिहरी में

लक्ष्मीनारायण मंदिर का निर्माण करवाया।

4 मई, 1859- सुदर्शन शाह की मृत्यु। भवानी शाह गद्दी

पर बैठे।

तिथि ज्ञात नहीं (1846 से पहले)- प्रसिद्ध कुमाऊंनी

कवि गुमानी पंत टिहरी पहुंचे और उन्होंने टिहरी पर

उपलब्ध पहली कविता- ‘सुरगंग तटी.......’ की रचना की।

1859 (सुदर्शन शाह की मृत्यु के बाद)- राजकोष की लूट।

कुछ राज कर्मचारी व खवास (उपपत्नी) लूट में शामिल।

1861- टिहरी से लगी पट्टी अठूर में नई भू-व्यवस्था लागू

की गयी।

1864- भागीरथी घाटी के जंगलों का बड़े पैमाने पर

कटान शुरू। विल्सन को दस हजार रुपये वार्षिक पर जंगल

कटान का ठेका दिया गया।

1867- अठूर के किसान नेता बदरी सिंह असवाल को

टिहरी में कैद किया गया।

सितम्बर, 1868- टिहरी जेल में बदरी सिंह असवाल की

मौत। टिहरी व अठूर पट्टी में हलचल मची।

1871- भवानी शाह की मृत्यु। राजकोष की फिर लूट हुई।

प्रताप शाह गद्दी पर बैठे।

1876- टिहरी में पहला खैराती दवा खाना खुला।

1877- भिलंगना नदी पर कण्डल झूला पुल का निर्माण।

टिहरी से प्रतापनगर पैदल मार्ग का निर्माण ।

1881- रानीबाग में पुराना निरीक्षण भवन का

निर्माण।

फरवरी 1887- प्रताप की मृत्यु। कीर्तिनगर शाह के वयस्क

होने तक राजामाता गुलेरिया ने शासन सम्भाला।

1892- टिहरी में बद्रीनाथ, केदारनाथ मन्दिरों का

निर्माण राजमाता गुलेरिया ने करवाया।

17 मार्च 1892- कीर्ति शाह ने शासन सम्भाला।

20 जून 1897- टिहरी में ब्रिटेन की महारानी

विक्टोरिया की हीरक जयंती के उपलक्ष्य में घण्टाघर

का निर्माण शुरू।

1902- स्वामी रामतीर्थ का टिहरी आगमन।

1906- स्वामी रामतीर्थ टिहरी में भिलंगना नदी में जल

समाधि।

25 अप्रैल 1913- कीर्ति शाह की मृत्यु। नरेन्द्र शाह गद्दी

पर बैठे।

1917- रियासत के बजीर पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी ने नरेन्द्र

हिन्दू लाॅ ग्रंथ की रचना की।

1920- टिहरी में कृषि बैंक की स्थापना। पंडित हरिकृष्ण

रतूड़ी ने गढ़वाल का इतिहास ग्रंथ लिखा।

1923- रियासत की प्रथम पब्लिक लाइब्रेरी की

स्थापना।

1924- बाढ़ से भागीरथी पर बना लकड़ी का पुल बहा।

1938- टिहरी में रियासत का हाईकोर्ट बना। गंगा

प्रसाद प्रथम जीफ जज नियुक्त किये गये।

1940- प्रताप कालेज इण्टरमीडिएट तक उच्चीकृत।

1940- ऋषिकेश-टिहरी सड़क निर्माण का कार्य पूरा।

टिहरी तक गडि़यां चलनी शुरू।

1942- टिहरी में प्रथम कन्या पाठशाला की स्थापना।

1944- टिहरी जेल में श्रीदेव सुमन का बलिदान।

5 अक्टूबर 1946- मानवेन्द्र शाह कर राजतिलक।

1945-48- प्रजा मंडल के नेतृत्व में टिहरी जनक्रांति का

केन्द्र बना।

14 जनवरी 1948- राजतंत्र का तख्ता पलट। नरेन्द्र शाह

को भागीरथी पुल पर रोक कर वापस नरेन्द्र भेजा गया।

जनता द्वारा चुनी गई सरकार का गठन।

अगस्त 1949- टिहरी रियासत का संयुक्त प्रांत में विलय।

1953- टिहरी नगरपालिका के प्रथम चुनाव। डाॅ.

महावीर प्रसाद गैरोला अध्यक्ष चुने गये।

1955- आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद सरस्वती

का टिहरी आगमन।

20 मार्च 1963- राजमाता कालेज की स्थापना।

तत्कालीन राष्ट्रपति डाॅ0 राधाकृष्णन टिहरी पहंुचे।

1963- टिहरी में बांध निर्माण की घोषणा।

अक्टूबर 1968- स्वामी रामतीर्थ स्मारक का निर्माण।

उद्घाटन तत्कालीन राज्यपाल डाॅ0 वी0गोपाला

रेड्डी द्वारा किया गया।

1969- टिहरी में प्रथम डिग्री काॅलेज खुला।

1978- टिहरी बांध विरोधी संघर्ष समिति का गठन।

वीरेन्द्र दत्त सकलानी अध्यक्ष बने।

29 जुलाई, 2005- टिहरी शहर में पानी घुसा, करीब सौ

परिवारों को अंतिम रूप से शहर छोड़ना पड़ा।

29 अक्टूबर, 2005- बांध की टनल-2 बन्द, टिहरी में जल

भराव शुरू।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

पंच प्रयाग

धारी देवी

रोचक जानकारी