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जैसा अन्न वैसा मन

एक बार एक ऋषि ने सोचा कि लोग गंगा में पाप धोने जाते है, तो इसका मतलब हुआ कि सारे पाप गंगा में समा गए और गंगा भी पापी हो गयी !* *अब यह जानने के लिए तपस्या की, कि पाप कहाँ जाता है ?* *तपस्या करने के फलस्वरूप देवता प्रकट हुए , ऋषि ने पूछा कि भगवन जो पाप गंगा में धोया जाता है वह पाप कहाँ जाता है ?* *भगवन ने जहा कि चलो गंगा से ही पूछते है, दोनों लोग गंगा के पास गए और कहा कि "हे गंगे ! जो लोग तुम्हारे यहाँ पाप धोते है तो इसका मतलब आप भी पापी हुई !"* *गंगा ने कहा "मैं क्यों पापी हुई, मैं तो सारे पापों को ले जाकर समुद्र को अर्पित कर देती हूँ !"* *अब वे लोग समुद्र के पास गए, "हे सागर ! गंगा जो पाप आपको अर्पित कर देती है तो इसका मतलब आप भी पापी हुए !"समुद्र ने कहा "मैं क्यों पापी हुआ, मैं तो सारे पापों को लेकर भाप बना कर बादल बना देता हूँ !"*  *अब वे लोग बादल के पास गए और कहा "हे बादलो ! समुद्र जो पापों को भाप बनाकर बादल बना देते है, तो इसका मतलब आप पापी हुए !"* *बादलों ने कहा "मैं क्यों पापी हुआ, मैं तो सारे पापों को वापस पानी बरसा कर धरती

टिहरी गढ़वाल की नथ

 टिहरी की नथ का कोई सानी नहीं जिस तरह उत्तराखंड मुख्य रूप से दो हिस्सों गढ़वाल और कुमाऊं में बंटा है, ठीक उसी तरह से उत्तराखंडी नथ भी दो प्रकार की होती है। इसमें भी टिहरी की नथ का कोई सानी नहीं। माना जाता है कि इस नथ का इतिहास राजशाही के दौर से शुरू होता है। तब राज परिवार की महिलाएं सोने की नथ पहना करती थीं। ऐसी मान्यता रही है कि जो परिवार जितना संपन्न होगा, वहां नथ भी उतनी ही भारी और बड़ी होगी। धन-धान्य की वृद्धि के साथ इसका आकार भी बढ़ता जाता था। हालांकि, बदलते दौर में युवतियों की पसंद भी बदली और भारी नथ की जगह स्टाइलिश एवं छोटी नथों ने ले ली। जबकि, दो दशक पूर्व तक नथ का वजन तीन से पांच या छह तोले तक भी हुआ करता था। इस नथ की गोलाई भी 35 से 40 सेमी तक रहती थी। टिहरी की नथ का क्रेज न सिर्फ पहाड़ों में है, बल्कि पारंपरिक गहनों के प्रेमी दूर-दूर से उत्तराखंड आकर अपनी बेटियों के लिए यह पारंपरिक नथ लेते हैं। महिलाओं के लिए पूंजी की तरह है नथ टिहरी गढ़वाल की नथ सोने की बनती है और उस पर की गई चित्रकारी उसे दुनियाभर में मशहूर करती है। इसमें बहुमूल्य रुबी और मोती जड़े होते हैं। नथ की महत्ता इत

पर्वतीय शादियां और रीती रीवाजे भाग:-3

 वर को अंगूठी तथा अन्य वस्त्रादि सामग्री उपहार स्वरूप भेंट की जाती है. तब पंडित जी के निर्देश पर ही कर्मकाण्ड सम्पन्न होता था,लेकिन आज फोटोग्राफर व वीडियोग्राफर के निर्देशों के बीच पण्डित जी लाचार नजर आते हैं.दशक पूर्व तक धूल्यर्घ के बाद रात्रि की शादी,की शादी निश्चित शुभ मुहूत्र्त पर सम्पन्न होती थी लग्न का मुहूत्र्त रात के एक, दो या तीन बजे, जब हो तब तक धूल्यर्घ के बाद दोनों पक्ष खाना खाकर दो, तीन, चार घण्टे तक भी शुभ लग्न की प्रतीक्षा करते थे. लेकिन आज ’डे मैरिज’ के जमाने में न तो घूल्यर्घ का कोई समय निर्धारित रहता है और न शादी का लग्न का मुहूत्र्त. विपरीत इसके धूल्यर्घ के बाद जयमाला का फैशन चल पड़ा है, जो दूसरी संस्कृतियों से आयातित होकर लोकप्रिय हो चला है. जयमाला में वर कन्या द्वारा एक दूसरे को वरण करने के बाद ब्याह अथवा अन्य किसी रस्म का औचित्य ही क्या रह जाता है ? जब कि जयमाला रस्म जब तक चलन में नहीं थी,वर-कन्या एक दूसरे का दीदार रात की शादी के वक्त ही कर पाते और पाणिग्रहण (सात फेरे) ही शादी की रस्म की सम्पन्नता मानी जाती. लेकिन आज जयमाला के स्टेज पर दुल्हन को हाथ पकड़कर दूल्हा

पर्वतीय शादियां और रीती रीवाजे भाग 2

 बूढ़ी हो चली पहाड़ी शादियों की कई परम्परागत रस्में -  आज आगे के कार्यक्रमों जानकारी दे रहे है  लम्बा लेख है कृपया पढे जरूर  हल्दी की रस्म तब भी थी, बल्कि तब यह आज से ज्यादा जरूरी भी थी, आज तो इसका औचित्य परम्परा का हिस्सा भर हैं. दरअसल हल्दी व मेंहदी की रस्म कोई धार्मिक अनुष्ठान का हिस्सा न होकर वास्तव में दूल्हा-दुल्हन की खूबसूरती बढाने के लिए किया जाने वाला एक उपक्रम भर है. हल्दी व सरसों के उबटन के पीछे कारण केवल और केवल चेहरे की खूबसूरती बढ़ाना रहा है. जब सौन्दर्य प्रसाधनों का चलन नहीं था, तो हल्दी का उबटन चेहरे पर निखार लाने के लिए किया जाता था, लेकिन आज तमाम सौन्दर्य प्रसाधनों के प्रयोग के बावजूद यह रस्म अब भी बदस्तूर जारी है. पर्वतीय शादियों में सुआल पथाई भी एक महत्वपूर्ण रस्म मानी जाती है. लाड़ू, तिल व चावल के आटे को भूनकर तथा गुड़ के मिश्रण से लड्डूनुमा आकार में बनाये जाते हैं और सुआले चावल के बारीक पीसे आटे को गुथकर तथा पूड़ी से कुछ बड़े आकार में बहुत पतले बेले जाते हैं और फिर धूप में सुखाये जाते हैं. जब इनका पानी सूख जाता है, तो सुहागिन महिलाओं द्वारा इनको तला जाता है. इस रस्म

कौआ

 भारतीय कौआ  यह एक गलत धारणा फैला रखी है कि कोवौ की आवाज कर्कश होती है। प्रकृति से प्रेम हो और नज़रीया सही हो तो इनका स्वर बहुत प्यारा लगता है। इनके स्वर से अल्फा व विटा संयुक्त ध्वनी तरंगें निकलती हैं जिन्हें लगातार सुनने से हमारी पिनियल ग्रेन्ड (पियुष ग्रंथी) कुछ हद तक सक्रिय होती है । और दुसरी बात पीपल या बड़ के बीज नही होते हैं । प्रकृति/कुदरत ने यह दोनों उपयोगी वृक्षों को लगाने के लिए अलग ही व्यवस्था कर रखी है। यह दोनों वृक्षों के टेंटे  कव्वे खाते हैं और उनके पेट में ही बीज की प्रोसेसिंग होती है और तब जाकर बीज उगने लायक होते हैं।  उसके पश्चात कौवे जहां-जहां बीट करते हैं वहां वहां पर यह दोनों वृक्ष उगते हैं। पीपल जगत का एकमात्र ऐसा वृक्ष है जो round-the-clock ऑक्सीजन (O2)  छोड़ता है और बड़ के औषधि गुण अपरम्पार है। अगर यह दोनों वृक्षों को उगाना है तो बिना कौवे की मदद से संभव नहीं है इसलिए कव्वे को बचाना पड़ेगा। ये संदेश-वाहक और एक कुशल सफाईकर्मी भी होते हैं जो फ़्री में हमारी सफाई करते हैं और हमारे आस-पास के वातावरण को स्वच्छ बनाते हैं ।

पर्वतीय शादियां और रीती रीवाजे

 बूढ़ी हो चली पहाड़ी शादियों की कई परम्परागत रस्में  लगन रोका, सगाई  या इन्गेजमैंट जैसे शब्द हमारे पर्वतीय समाज में चलन में नहीं थे. टीका लगाने के बाद शादी की तैयारियां शुरू हो जाती. तब यातायात साधनों का नितान्त अभाव था. बारातें पैदल कई कई मील की पैदल यात्राएं करती, कभी-कभी तो बारात को रात्रि में कहीं पड़ाव डालकर दो या तीन की पैदल यात्रा भी करनी पड़ती. संचार साधनों के नाम पर केवल चिट्ठियां ही संदेश भेजने का साधन थी, जो कई-कई दिनों या हफ्तों में दूसरे तक पहुंच पाती. बारात जब घर के द्वार पर पहुंचती, तभी कन्या पक्ष के लोग आश्वस्त होते. इस संशय के चलते व्यवस्था बनी  ‘मस-चवईयों’ ( मास चावल लेकर अगवानी करने वाले) की रस्म की. बारात रवानगी से पहले गांव के दो सम्भ्रान्त व विश्वनीय व्यक्तियों को कन्या पक्ष के पास आश्वस्त करने के लिए भेजा जाता कि बारात उनके पीछे आ रही हैं, कभी-कभी विशेष रूप से ब्राह्मण परिवारों में ‘पिठ्या लगाना’ यानि टीके की रस्म अदायगी की जाती थी ।  गांव के लोगों में एकता रहती थी सारे गांव के लोग लकड़ी इकट्ठा करने से लेकर घर की साफ-सफाई, रंगाई, पोताई, बर्तनों की व्यवस्था तक हर का

केदारनाथ

 👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏 *" केदारनाथ को क्यों कहते हैं ‘जागृत महादेव’ ?, दो मिनट की ये कहानी रौंगटे खड़े कर देगी "* *एक बार एक शिव-भक्त अपने गांव से केदारनाथ धाम की यात्रा पर निकला। पहले यातायात की सुविधाएँ तो थी नहीं, वह पैदल ही निकल पड़ा। रास्ते में जो भी मिलता केदारनाथ का मार्ग पूछ लेता। मन में भगवान शिव का ध्यान करता रहता। चलते चलते उसको महीनो बीत गए।* *आखिरकार एक दिन वह केदार धाम पहुच ही गया। केदारनाथ में मंदिर के द्वार 6 महीने खुलते है और 6 महीने बंद रहते है। वह उस समय पर पहुचा जब मन्दिर के द्वार बंद हो रहे थे। पंडित जी को उसने बताया वह बहुत दूर से महीनो की यात्रा करके आया है। पंडित जी से प्रार्थना की - कृपा कर के दरवाजे खोलकर प्रभु के दर्शन करवा दीजिये । लेकिन वहां का तो नियम है एक बार बंद तो बंद। नियम तो नियम होता है। वह बहुत रोया। बार-बार भगवन शिव को याद किया कि प्रभु बस एक बार दर्शन करा दो। वह प्रार्थना कर रहा था सभी से, लेकिन किसी ने भी नही सुनी।*  *पंडित जी बोले अब यहाँ 6 महीने बाद आना, 6 महीने बाद यहा के दरवाजे खुलेंगे। यहाँ 6 महीने बर्फ और ढंड पड़ती है। और सभी जन व

#आधीकैलाश

 #आदिकैलाश  आदिकैलाश तिब्बत सीमा पर उत्तराखंड राज्य के पिथौरागढ़ जिले में जौलिंगकोंग नामक स्थान पर स्थित है  l यह घाटी व्यास घाटी के नाम से विख्यात है l यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता व शांति आत्मिक आनंद प्रदान करती है l आदिकैलाश समुन्द्र तल से लगभग 5945 मीटर ऊँचाई पर है l  आदिकैलाश को छोटा कैलाश भी कहा जाता है l क्योंकि यह बड़ा कैलाश (कैलाश मानसरोवर ) की ही प्रतिकृति दिखाई देता है l मानसरोवर झील की तरह ही यहाँ पार्वती सरोवर है, जिसकी लम्बाई 300 मीटर तथा चौड़ाई 200 मीटर है l पुराणों के अनुसार आदिकैलाश, कैलाश मानसरोवर से निकली शिवजी की बारात का मुख्य पड़ाव था l मैंने जब इस कैलाश को देखा, तब मुझे आदिकैलाश महादेव के तपस्वी रूप की तरह ही लगे l आप अगर इस पूरे कैलाश पर्वत को देखेंगे, तब आपको पूरा पर्वत ही किसी तपस्वी सा तपस्यारत जान पड़ेगा l जैसे आदि अनादि काल से तपस्या में लीन हो l आदिकैलाश ॐ पर्वत यात्रा साथ -साथ ही की जाती है l आदिकैलाश जाने के लिए आपको उत्तराखंड के काठगोदाम पहुँचना होता है l यहाँ आप रेल मार्ग, मोटर मार्ग से आसानी से पहुँच सकते है l नजदीकी हवाई अड्डा पंतनगर है l काठगोदाम से 275km ग

टिहरी गढ़वाल

 टिहरी के बारे मे आप तक कूछ जानकरी टिहरी सन् 1815 से पूर्व तक एक छोटी सी बस्ती थी। धुनारों की बस्ती, जिसमें रहते थे 8-10 परिवार। इनका व्यवसाय था तीर्थ यात्रियों व अन्य लोगों को नदी आर-पार कराना। धुनारों की यह बस्ती कब बसी। यह विस्तृत व स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं लेकिन 17वीं शताब्दी में पंवार वंशीय गढ़वाल राजा महीपत शाह के सेना नायक रिखोला लोदी के इस बस्ती में एक बार पहुंचने का इतिहास में उल्लेख आता है। इससे भी पूर्व इस स्थान का उल्लेख स्कन्द पुराण के केदार खण्ड में भी है जिसमें इसे गणेशप्रयाग व धनुषतीर्थ कहा गया है। सत्तेश्वर शिवलिंग सहित कुछ और सिद्ध तीर्थों का भी केदार खण्ड में उल्लेख है। तीन नदियों के संगम (भागीरथी, भिलंगना व घृत गंगा) या तीन छोर से नदी से घिरे होने के कारण इस जगह को त्रिहरी व फिर टीरी व टिहरी नाम से पुकारा जाने लगा। पौराणिक स्थल व सिद्ध क्षेत्र होने के बावजूद टिहरी को तीर्थस्थल के रूप में ज्यादा मान्यता व प्रचार नहीं मिल पाया। ऐतिहासिक रूप से यह 1815 में ही चर्चा में आया जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सहायता से गढ़वाल राजा सुदर्शन शाह गोरखों के हाथों 1803 में गंवा बैठे अप

पर्यावरण

 पर्यावरण एवं जैवविविधता संरक्षण के सन्दर्भ में वर्तमान समय "भारतीय वन्यजीव सप्ताह" का चल रहा है। वन्यजीव सप्ताह भारत में प्रतिवर्ष अक्टूबर माह के प्रथम सप्ताह में मनाया जाता है। वन्यजीव सप्ताह मनाने का प्रमुख उद्देश्य भारतीय वन्यजीवों, पक्षियों, सरीसृपों, स्तनधारियों आदि प्राणियों की जैवविविधता एवं उनके प्राकृतिक पर्यावास को संरक्षित करना तथा जैवविविधता के प्राकृतिक महत्व के प्रति लोगों को जागरूक करना है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि धरती ग्रह पर जीवन का उद्विकास पर्यावरण के अनुकूल ऐसे माहौल में हुआ है जिसमें जल, जंगल, जमीन और जीव-जंतु सभी आपस में एक-दूसरे से परस्पर जुड़े हुए हैं। प्रकृति ने धरती से लेकर वायुमंडल तक विस्तृत जैवविविधता को इतनी खूबसूरती से विकसित एवं संचालित किया है कि यदि उसमें से एक भी प्रजाति का वजूद खतरे में पड़ जाये तो सम्पूर्ण जीव-जगत का संतुलन बिगड़ जाता है। सृष्टि में मानव सहित समस्त जीव-जंतुओं का वजूद परस्पर एक दूसरे के सह-अस्तित्व पर टिका हुआ है।  वन्यजीवों एवं पक्षियों का प्राकृतिक जैवविविधता के संचालन तथा हमारे प्रकृति-ज्ञान के सन्दर्भ में अत्यन्त म